ज्योतिष के चमत्कारी सूत्र
ज्योतिष के नियम
नमस्कार
आज हम आपको फलित ज्योतिष के कुछ नियमों के बारे में बताएंगे
जन्म कुंडली के 12 भावों से बचपन, यौवन, वृद्धावस्था, मृत्यु तक तथा मनुष्य के वर्तमान, भूतकाल, भविष्य संबंधी घटनाओं और हर तरह के क्रियाकलापों का मिलाजुला समावेश होता है। कुंडली के 12 भावों में स्थित राशियों ग्रहों के बल पर शुभ अशुभ स्थिति, दृष्टि, ग्रह दशा आदि के विश्लेषण से ही कुंडली के द्वारा जातक के शुभ अशुभ फलादेश का निर्णय किया जाता है।
हमारे ज्योतिषाचार्यो ने कुंडली में फलादेश संबंधी ज्ञान को जितना संभव हो सका कुछ सूत्रों में एकत्रित करने का प्रयास किया है। फलित ज्योतिष के ज्ञान के लिए निम्नलिखित सूत्र और नियमों को ध्यान में रखना आवश्यक है।
1. जन्म कुंडली का फलादेश गहराई से करने के लिए जातक के जन्म समय के ग्रह, भाव चलित, नवमांश, योगिनी विशोंतरी आदि ग्रह दशाओं का विश्लेषण करने के बाद ही जन्मकुंडली का फल कथन करना चाहिए।
2. सबसे पहले कुंडली में भाव, भावेश, भाव कारक ग्रहों की स्थिति तथा उन पर शुभ अशुभ ग्रहों का प्रभाव देखने के बाद ही फलादेश करना चाहिए।
जिस भाव में जो राशि होती है उस राशि का स्वामी ही उस भाव का स्वामी या भावेश कहलाता है।
भवन्ति भाव भावेश कारका बल संयुता/तदा पूर्ण फलं
द्वाभ्यामर्घं एकेबाल्यं फलं वदेत् ॥
कुण्डली में केन्द्र(1,4,7,10) और त्रिकोण (1,5,9) भावों में
शुभ ग्रहों (चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र आदि) का होना शुभ फलदायक है, जबकि 3, 6,11भावों में पाप एवं क्रूर (सूर्य, मंगल, शनि,राहु आदि) ग्रहों का रहना शुभफली माना जाता है।
3. जो भाव अपने स्वामी ग्रह अथवा बुध, गुरु या शुक्र आदि शुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्टि हो तथा किसी अन्य शत्रु ग्रह से युक्त या दृष्टी न हो तो वह भाव शुभ फल देता है।
4. जिस भाव में पाप ग्रह होता है या जिस भाव का स्वामी पाप ग्रह (शनि, मंगल, राहु) आदि से युक्त या दृष्ट होता है उस भाव के फल की हानि होती है।
"यो यो भावः स्वामि दृष्टो युतो वा सौम्यै र्वा स्यात् तस्य
तस्य वृद्धिः ।
पापैरेवं तस्य भावस्य हानि निर्देष्टव्या पृच्छता जन्मतो वा ॥"
5. जिस भाव का स्वामी ग्रह उच्च राशि में हो, उसका शुभ फल पूरा मिलता है, नीच राशि में हो तो शुभ फल का अभाव रहता है, शत्रु राशि में हो तो अल्प शुभ फल मिलता है, मित्र ग्रह की राशि में चतुर्थांश शुभ फल मिलता है, अपनी राशि के भाव में आधा फल मिलता है और मूल त्रिकोण राशि में तीन चौथाई शुभ फल मिलता है।
स्वोच्चस्थितः शुभफलं प्रकरोति पूर्णं नीचर्क्षगस्तु विफलं,
रिपुमन्दिरेऽल्पम् ।
पादं शुभस्य हिते स्वगृहे तदर्थं पादत्रयं गगनगः स्थित
वांस्त्रेकोणे ॥
6. त्रिकोण भाव (1,5,9)के स्वामी शुभ फल प्रदान देने वाले होते हैं अर्थात इन भावों के स्वामी अगर पाप ग्रह हो तो भी शुभ फल को देने वाले होते हैं अगर सौम्य ग्रह हो तो अत्यंत शुभ फल देने वाले होते हैं।
सर्वे त्रिकोण नेतारो ग्रहाः शुभफलप्रदाः ।
पतयस्त्रिषडायानां यदि पापफलप्रदा ॥
7. त्रिषडाय (3,6,11) भावों के स्वामी कुण्डली में जहाँ
भी बैठगे, उस भाव के फल का नुकसान ही करेंगे। अगर त्रिषडाय पति शुभ ग्रह हों, तो भी पाप ग्रहों के जैसा फल देंगे। यदि त्रिषडाय पति पापग्रह हों, तो अत्यन्त अशुभ फल देंगे। त्रिषडाय भावों में केवल पाप ग्रह शुभ फली माने जाते हैं।
8. 6, 8, 12भाव के स्वामी जिस भाव में बैठे होंगे, उस भाव का नुकसान ही करते हैं। आठवें और बारहवें भाव में सभी ग्रह अनिष्ट प्रभाव कारक होते हैं।
9. लग्नेश जिस भाव में बैठता है उस भाव के फल में वृद्धि करता है अगर लग्नेश केंद्र त्रिकोण भाव में बैठा हो अर्थात 1, 3, 4, 5, 7, 9, 10, 11 भाव में हो तो जातक उच्च पद, प्रतिष्ठा, पुरुषार्थ, सुख, संतान, वाहन आदि सुख से युक्त भाग्यवान, सरकारी क्षेत्रों से लाभ लेने वाला होता है।
लग्नेश पर शुभ ग्रहों की दृष्टि से जातक स्वस्थ रहता है जबकि अशुभ ग्रहों की दृष्टि से स्वास्थ्य कमजोर रहता है
ग्यारहवें भाव में लग्नेश हो तो व्यक्ति की आय के साधन एक से अधिक होते हैं। लग्नेश छठे, आठवें और बारहवें भाव में होने पर जातक को शरीर कष्ट, रोग व शत्रु से भय रहता है, हर काम में विघ्न, संघर्ष तथा बेफिजूल खर्चे जैसे अशुभ फल मिलते हैं।
10. सूर्य, मंगल, शनि और राहु एक दूसरे से अधिक पापी व क्रूर ग्रह है। यह ग्रह अपनी नीच, पाप ग्रहों की राशि में रहने से और भी पापी तथा शुभ और मित्र ग्रह की राशि और अपनी उच्च राशि में रहने से थोड़े पापी होते हैं अर्थात उम्मीद से कम अनिष्ट फल देने वाले होते हैं।
11. चंद्रमा बुध शुक्र और गुरु के एक दूसरे से अधिक शुभ ग्रह हैं। यह शुभ ग्रहों की राशि में रहने से और भी शुभ हो जाते हैं। और पाप ग्रहों की राशि में रहने से उम्मीद से कम शुभ फल देते हैं।
12. राहु, केतु और आठवें भाव का स्वामी जिस भाव में रहता है उस भाव के फल को नुकसान पहुंचाता है।
13. राहु यदि 3, 6, 9 भाव में हो तो अचानक से धन लाभ और नुकसान से निवारण भी करता है। राहु, केतु जिस भाव में बैठते हैं उस भाव के स्वामी के अनुसार ही शुभ, अशुभ फल देते हैं।
राहु में शनि के आधे गुण तथा केतु में मंगल के आधे गुण होते हैं।
14. गुरु यदि छठे भाव में हो तो शत्रुओं का नाश करता है। शनि यदि आठवें भाव में हो तो आयु बढ़ाता है। सूर्य और मंगल अगर दसवें भाव में हो तो भाग्य की वृद्धि करते हैं। चंद्रमा और शुक्र यदि चौथे भाव में हो तो धन संपदा को बढ़ाते हैं। गुरु, बुध या शनि यदि लग्न में हो या सप्तम में हो तो सौभाग्यवर्धक माने जाते हैं।
15. जिस भाव का जो ग्रह कारक माना गया है यदि वह अकेला उस भाव में हो तो उस भाव के फल की हानि करता है। जैसे सूर्य 1, 9, 10वें भावों का कारक है यदि सूर्य अकेला पहले भाव में हो और किसी अन्य शुभ ग्रह की दृष्टि उस पर ना हो तो जातक की आंखों और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता है। नवम भाव में हो तो भाग्य की उन्नति को नुकसान पहुंचाता है तथा दसवें भाव में हो तो व्यवसाय में नुकसान पहुंचाता है। यदि भाव कारक ग्रह पर गुरु आदि किसी शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो उसका को लाभ रहता है।
इसी प्रकार गुरु दूसरे भाव में अकेला हो तो धन और परिवार के सुख में कमी लाता है, पांचवें भाव में यदि गुरु अकेला हो तो पुत्र संतान सुख में कमी लाता है, दसवें भाव में यदि गुरु अकेला हो तो व्यवसाय की उन्नति में कमी लाता है तथा ग्यारहवें भाव में गुरु अकेला हो तो धन लाभ की स्थिति में कमी लाता है।
तीसरे भाव का कारक ग्रह मंगल यदि तीसरे भाव में अकेला हो तो पराक्रम में कमी लाता है।
चौथे भाव का कारक ग्रह है चंद्रमा व बुध होते हैं यदि चंद्रमा या बुध चौथे भाव में अकेले हो तो माता के सुख या वाहन, मकान सुख में कमी लाते हैं।
इसी प्रकार छठे भाव का कारक ग्रह शनि व मंगल, सातवें भाव का कारक ग्रह शुक्र, आठवें भाव का कारक ग्रह शनि, नौवें भाव का कारक ग्रह सूर्य व गुरु, दसवें भाव का कारक ग्रह सूर्य, बुध, गुरु व शनि, ग्यारहवें भाव का कारक ग्रह गुरु तथा 12वें भाव का कारक ग्रह शनि होता है यह कारक ग्रह अपने भाव में अकेले हो तो उस भाव के फल में कमी लाते हैं।
16. कुण्डली में जिस प्रकार भाव के कारक ग्रह होते है उसी प्रकार ग्रहों के कारकत्व पर भी विचार करना चाहिए।
जैसे
सूर्य : सूर्य को पिता, आरोग्य और नेत्रों, झगड़े, क्रोध, मारपीट, हिंसक कार्य, हिम्मत, तेजस्विता, पराक्रम का कारक माना जाता है।
चंद्रमा : चन्द्रमा को माता, मन और धन, सौम्यता, सज्जनता, शील, संकोच, लज्जा, भावुकता, सुंदरता, जलयात्रा आदि का कारक माना जाता है।
मंगल : मंगल को भाई, भूमि, पुत्र, युद्ध, नेतृत्व, सेनापति, पुलिस, मिलिट्री की नौकरी, अस्त्र-शस्त्र संचालन, कृषि, भूमि संबंधी कार्य, भूगर्भ विशेषज्ञ, मकान बनवाना, भूमि खरीदना, डॉक्टरी शिक्षा, पशुपालन का कारक माना जाता है।
बुध : बुध को बुद्धि, विद्या, वाणी, व्यापार, मामा, लेन देन, खरीदना बेचना, कंजूसी, ऐश्वर्या भोग, क्लर्क, स्टेनो टाइपिस्ट, वायुयान संचालक का कारक माना जाता है।
गुरू : गुरु को विवेक, बुद्धि, विद्या, पुत्र, पति, शिक्षा, वाद विवाद, वेद, शास्त्रार्थ, धार्मिक कार्यों का ज्ञान, लेक्चरर, प्रोफेसर, ऑफिसर, नेतृत्व प्रधान कार्य आदि का कारक माना जाता है।
शुक्र : शुक्र को स्त्री, धन, वाहन, व्यापार, सुंदरता, स्वच्छता, विश्व सुंदरी पद, संगीत, शारीरिक गठन, तेजस्विता, सुकुमारता, विदेश यात्रा, विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से संपर्क, हड्डियों के जोड़ तोड़ का विशेषज्ञ, प्रेम संबंधी कार्य, दलाली, भोग विलास, वैश्यावृत्ति, कामातुरता आदि का कारक माना जाता है।
शनि : शनि को दुख, पीड़ा, आयु, व्यापार, रोग, छल कपट, धोखा, हिंसा, चोरी जैसे काम, डाकू, हिंसक व्यक्तित्व, लोहे का व्यापार, तिल, तेल, ऊन आदि का व्यापार का कारक माना जाता है।
राहु: राहु को अचानक धन, आलस्य, अस्थिरता, स्थायी संपत्ति, योगाभ्यास, उदर रोग, वाहन, जन नेता, विधानसभा, लोकसभा का पद, कूटनीतिज्ञ, राजदूत का कारक माना जाता है।
केतु : केतु को गुप्त शक्ति, तंत्र विद्या, धन लाभ, शत्रु विजय, सफल वक्ता, नशीली वस्तुओं का व्यापारी, तस्कर, ठगी, विष विक्रेता, मशीनी कार्यों में प्रवीणता का कारक माना जाता है।
17. जिस भाव का विचार करना हो यदि उस भाव का स्वामी अपने भाव से 6, 8 या 12 भाव में बैठा हो तो उस भाव का फल बिगाड़ देगा।
यदि जिस भाव का हमें विचार करना है उस भाव का स्वामी और अन्य शुभ ग्रह 1, 4, 5, 7, 9 और 10 वें भाव में हो तो उस भाव के फल की वृद्धि होती है।
परंतु याद रहे इन भावों पर पाप ग्रहों की दृष्टि या पाप ग्रह बैठे नहीं होने चाहिए यदि शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के ग्रह इस भाव में होंगे तो मिलाजुला प्रभाव मिलेगा।
18. जब कोई शुभ ग्रह वक्री होता है तो अधिक शुभ फल देता है तथा यदि क्रूर ग्रह वक्री हो जाए तो और भी अधिक हानिकारक हो जाता है। यदि गोचर में कोई ग्रह वक्री होता है तो बाकी ग्रहों के साहचर्य के कारण परिस्थितियों में शुभ अशुभ परिवर्तन करता है।
अस्तंगत ग्रह जातक को मानसिक और शारीरिक कष्ट, कार्यों में विफलता, धन हानि, गुप्त चिंता, शत्रु भय, रोग आदि अशुभ फल देते हैं। जबकि उदित ग्रह मान-सम्मान, सौभाग्य में वृद्धि, धन लाभ और सुख प्रदान करते हैं।
19. गोचर में सूर्य जब चंद्रमा से गोचरवश 3, 6, 10 और 11 वे स्थान पर आता है तो शुभ फल देता है। शनि गोचरवश 3, 6 11वें स्थानों पर शुभ फल देता है। इन स्थानों में शनि अचानक धन लाभ, व्यवसाय में उन्नति व वाहन आदि का सुख भी देता है।
20. कुंडली में कई बार दो या दो से ज्यादा ग्रह है चमत्कारी फल देते हैं। उदाहरण के तौर पर - केंद्र और त्रिकोण के स्वामी ग्रह जिस भाव में एक साथ बैठेंगे उस भाव का फल शुभ होगा। विशेषकर 5, 9 और 11वें भाव में दो या दो से ज्यादा ग्रहों का योग बहुत अच्छा और शुभ फल देने वाला होता है।
कभी-कभी ग्रहों के आपसी संबंधों, ग्रहों के पारस्परिक स्थान परिवर्तन, और एक दूसरे ग्रह पर दृष्टि संबंध के कारण ग्रह योगकारक और विशेष फल देने वाले हो जाते हैं।
विभिन्न योग का फल अगले आर्टिकल में दिया जाएगा।
21. जो ग्रह अपनी उच्च राशि, स्वराशि या मित्र राशि में हो। वह अपनी दशा, अंतर्दशा में शुभ फल देता है जो ग्रह नीच और शत्रु राशि में होगा। वह अपनी दशा, अंतर्दशा में धन हानि, शारीरिक कष्ट, पीड़ा, दुख आदि जैसे अशुभ फल देता है।
धन्यवाद!
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